काठ की हांडी
बचपन में पढ़ा था कि काठ की हांडी दोबारा नहीं चढ़ती और दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। लेकिन काठ मारे हुए समाज की हांडी को नफरत की कलई लगा कर भावनाओं की आंच पर बार बार चढ़ाया जा सकता है। बेकारी के दूध में धर्म की अफीम मिला कर कुंठित आशाओं के चावलों से उन्माद की जहरीली खीर बार बार बनायी जा सकती है। क्योंकि दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीना जल्दी ही भूल जाता है।