परदेस
वो जगते हैं, हम सोते हैं, वो सोते हैं , हम जगते हैं,
अब सारे रात और दिन अपने, बस आंखों मे ही कटते हैं ।
बचने को सवालों से जग के, आंखें सूखी ही रखते हैं,
दो बूंद बहा लेते हैं बस, जब झूम के बादल फटते हैं ।
अपना आवारा दिल भी अबकी बार बड़ा संजीदा है,
आये हो इतनी दूर कहो, घर वापस तो जा सकते हैं ?
क्यों राह लगे पहचानी सी, क्यों हर आहट पर कान लगे?
अब कहां अभागा यार यहां, हम किसकी राहें तकते हैं ?
अब सारे रात और दिन अपने, बस आंखों मे ही कटते हैं ।
क्यों हर लब है ख़ामोश यहां, हर आंख मे क्यों वीरानी सी,
है आग कहां जज्बातों की, क्यों दिल ना यहां तड़पते हैं ?
है आग कहां जज्बातों की, क्यों दिल ना यहां तड़पते हैं ?
बचने को सवालों से जग के, आंखें सूखी ही रखते हैं,
दो बूंद बहा लेते हैं बस, जब झूम के बादल फटते हैं ।
अपना आवारा दिल भी अबकी बार बड़ा संजीदा है,
आये हो इतनी दूर कहो, घर वापस तो जा सकते हैं ?
क्यों राह लगे पहचानी सी, क्यों हर आहट पर कान लगे?
अब कहां अभागा यार यहां, हम किसकी राहें तकते हैं ?
Comments
Needs a lot of improvement. Specifically, you need to do something about your metaphors. They are weak, cliched and very inexpressive. Use some more imagination, perhaps!
-- Akshaya