परदेस

वो जगते हैं, हम सोते हैं, वो सोते हैं , हम जगते हैं,
अब सारे रात और दिन अपने, बस आंखों मे ही कटते हैं ।

क्यों हर लब है ख़ामोश यहां, हर आंख मे क्यों वीरानी सी,
है आग कहां जज्बातों की, क्यों दिल ना यहां तड़पते हैं ?

बचने को सवालों से जग के, आंखें सूखी ही रखते हैं,
दो बूंद बहा लेते हैं बस, जब झूम के बादल फटते हैं ।

अपना आवारा दिल भी अबकी बार बड़ा संजीदा है,
आये हो इतनी दूर कहो, घर वापस तो जा सकते हैं ?

क्यों राह लगे पहचानी सी, क्यों हर आहट पर कान लगे?
अब कहां अभागा यार यहां, हम किसकी राहें तकते हैं ?

Comments

Anonymous said…
very battr, abhaga. maja aa gayi padh kar!
Gautam said…
That was great poetry Abhaya. If it was original then u surely are gifted. It brought the memories of my city (lucknow) and friends and family.
Braveheart said…
I am sure you are getting more adulation than you deserve. Don't take it to your heart :D

Needs a lot of improvement. Specifically, you need to do something about your metaphors. They are weak, cliched and very inexpressive. Use some more imagination, perhaps!

-- Akshaya

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