मन
इस नयी ज़मीं पर मैने था जब धरा कदम,
"मन लगता तो है?" पूछा जाता था हरदम।
शुभचिंतक सब चिंता करते थे घड़ी घड़ी,
यारों के मुंह से थी गुड लक की लगी झड़ी।
अन्जान डोर एक थाम चल पड़े थे हम भी,
मन मे थी थोड़ी खुशी और थोड़े गम भी।
जिस ओर उठायी नज़र, मिला कुछ नया नया,
उठ पायें कदम उससे पहले मन गया गया।
नित नये नये आकर्षण मन को बहलाते,
हम उत्साहित हो हो प्रियजन को बतलाते।
उत्साह भरे स्वर ने उनको आभास दिया,
हो गया अभागा वैल सैटल, अहसास दिया।
तब से अब तक कुछ एक बरस है बीत चुका,
और पात्र नयेपन की मदिरा का रीत चुका।
अब मन यथार्थ की भूमि पर नंगे पांव,
ढूंढा करता स्मृतियों की ठंडी छांव।
जिन प्रश्नों पर हम गये बरस थे झल्लाते,
अब उनके उत्तर ख़ुद को ही हैं दोहराते।
"मन लगता तो है?" पूछा जाता था हरदम,
मन लौट गया है देश, यहां तन्हा हैं हम।
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-himanshu