कूचा-ए-जाना

चलें कूचा-ए-जाना से, शहर को देख कर आयें,
तबीयत भर गयी फ़ूलों से, कांटे देख कर आयें।

नये मौसम मे सुनते हैं, नये अंदाज़ हैं उनके,
बदल जायेगा दो दिन मे, नज़ारा देख कर आयें।

जो आयें तेरी महफ़िल मे, ना जायें फ़िर कहीं उठ कर,
कुछ आयें नये और कुछ सब ज़माना देख कर आयें।

वो पिछले मोड पर जो राह छूटी हमसफ़र छूटा,
कसक उठती है रह रह कर कि जायें देख कर आयें।

हवा मे घुल रहा है दर्द, फ़िज़ां हो चली गमगीं,
सुनाता है गज़ल फ़िर से अभागा, देख कर आयें।

Comments

Anonymous said…
wah wah!

Popular posts from this blog

बिछड़ते दोस्तों के नाम

क्या लिखूं?

To bend and not to fold