आजकल

जीभ पर कांटे उगे हैं, लेखनी मृतप्राय है, फिर भी संपादक महोदय की अभी एक राय है।

अब है वो तैयार, दुनिया को बदल डालेगा वो,
हाथ में अखबार, होठों पे सुलगती चाय है।

ख़ौफ़ के सौदागरों की, धज अलग है आजकल,
जेब में सिक्कों की खनखन, मुँह पे हाय हाय है।

डालियों पे चंद ग़ुल, बेबाक हैं जलवाफरोश,
कौन जाने मौसम-ए-गुल, आए है कि जाए है।

अब कहां इंसानियत, जम्हूरियत, हक़, इंकलाब,
अब अभागा दूध, मक्खन, घी कनस्तर, गाय है।

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