डरते हैं

डरते हैं ना साकी को हम दिलदार बना लें,
मय को ना ग़म-ए-दिल का चारागार बना लें।

बस्ती से जो गुज़रा तो मुसाफ़िर ने की हसरत,
हम भी ठहर के अपना एक घरबार बना लें।

है चुक गया इंसान के दिल से खुदा का नूर,
कहने को रहे बुत चलो दो चार बना ले ।

दे दो सभी के हाथों मे कलमें-ओ-किताबें,
जुल्म-ओ-सितम से लडने का हथियार बना लें।

ता उम्र बावफ़ा रहीं हैं हमसे अभागा,
मायूसियों को ही न क्यों हम यार बना लें ।

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