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Showing posts from March, 2007

सागर किनारे

आज जाने क्यों बैठे बैठे मन मे पांडिचेरी का ख़्याल आ गया । लगभग २ साल हुए जब मैं पहली बार वहां गया था। बहुत सुना था उसके बारे मे पर पहली नज़र मे तो थोड़ी निराशा ही हुई थी। ग़लती शायद जगह की कम और साथ वालों की ज्यादा थी पर जब वापस लौटे तो उतनी ख़ुशी नही थी मन मे। कुछ ठगा सा महसूस कर रहा था, क्या मालूम था कि अपना थोडा सा मन वहीं छोड़ा आया था । उसके बाद से एक बार वहां जाना और हुआ पर मात्र एक दिन के लिए और आज अचानक यहाँ अमरीका मे बैठे बैठे मुझे याद आ भी रहा है तो पांडिचेरी ना कि दूसरे अनेक ऐसे स्थान जहाँ के यात्रा अनुभव कहीं अधिक स्मरणीय हैं । मुझे पता है कि कारण क्या है। मेरा मन पांडिचेरी की गलियों मे नही, उसके समुद्र के किनारे कहीं छूट गया है । असल मे पांडिचेरी ही एक मात्र ऐसी जगह है जहां मैं कुछ घंटों से ज्यादा, असल मे कुछ दिन तक समुद्र के पास रह सका हूँ । और गरजते समुद्र के सानिध्य मे कुछ पल बिताने जैसे अनुभव इस संसार मे कम ही हैं । आप अपने ह्रदय की कोई भी झंकार उन लहरों के गर्जन मे सुन सकते हैं और वो उमड़ती लहरें, एक मंझे हुए अभिनेता की भांति , एक धीर श्रोता से लेकर एक चुनौती देते प्रतिद...

Speaking your heart out

As you get ready to walk up and take stage, your hands get moist, your feet give out that strange sensation of standing on top of a 100 story building, suddenly you need to go to loo, your throat is dry, your heart is going to stop. The place is not even well lighted but you feel all the spotlight on your face, as words come out you cannot even remember to breath and then you take one deep breath and ... ... you either loose it or you flow. In my 14-15 odd years of public speaking, I have gone through this numerous times and I have been on both sides of the line. I have screwed it all up and I have taken the day. But what has not changed is the thrill, that rush of Adrenalin. Yes, like a drug addict, small doses don't satisfy the craving that much now and with the college life gone, even those small doses don't come my way any longer. I realized this a few days ago that I have hardly stood up to speak in the last 2 and a half years since leaving college and that realization ha...

मुलाकात

दो दिन का तेरा मिलना जाने क्या क्या रंग दिखलायेगा, मिलने की होगी खुशी या ग़म जाने का तेरे सतायेगा। जो गले लगाऊंगा तो आंखें बोलेंगी दीदार करूं, जो दूर हटा तो मन बांहों मे भरने को ललचायेगा। यूं तो मुझको पर्याप्त नही जीवन भर भी तेरा मिलना, और यूं दो पल का मिलना भी दिल गांठ बांध इतरायेगा। बरसों फ़ैले बंजर मे ये दो कदमों का फ़िरदौस सनम, आंखों मे भर दिल बंजारा, हंसकर आगे बड जायेगा। हम साथ तेरे फ़िर से जो दिल की बंद पोटअलिया खोलेंगे, कुछ लाद सकेंगे साथ और कुछ वहीं धरा रह जायेगा। दिल का ना पूछो हाल, अभागा पगला है, दीवाना है, दो दिन को धडकेगा फ़िर वापस ढर्रे पर आ जायेगा।

गूगल समाचार अब हिन्दी मे !

तुलसी की लिखी हुई चौपाई याद आ गयी आज, "अति आनन्द उमगि अनुरागा..." जब गूगल के हिन्दी समाचार प्रष्ठ पर नज़र पडी तो। ना जाने कितनी बार google news India पर नीचे की सूची मे जा कर देखा था और सोचा था कि अगर यहां हिन्दी भी होती तो कितना अच्छा रहता। अब वह मनोकामना पूर्ण हो गयी है। गूगल समाचार का आना सिर्फ़ एक भाषा प्रेमी का व्यर्थ का उत्साह नही है। इसके अनेक ऐसे फ़ायदे हैं जो कि शायद पहली नज़र ने दिखते नही हैं। अव्वल तो ये कि अब अलग अलग जाल प्रष्ठों को देख्ने के लिये अलग अलग फ़ोंट लगाते रहने की आवश्यक्ता नही है, जोकि हमारे आपके जैसे लोगों के लिये तो सिर्फ़ एक छोटी सी समस्या भर हो सकती है पर अनेकानेक लोगों के लिये बस वही अन्त हो जाता है। साथ ही साथ यूनीकोड मे होने से समाचारों को ढूंढना भी सरल हो जाता है। पर इस सबसे बड कर बात है कि भाषा बदलने से समाचार पत्रों का पूर नज़रिया भी बदल जाता है। Google News India से अभी तक समाचारों की जो झलक मिलती थी वो अंगरेज़ी मीडिया के द्रष्टिकोण से दिखती थी, उन्हे क्या महत्वपूर्ण लगता है क्या नही वगैरह। हिन्दी समाचार पत्रों का द्रष्टिकोण इससे काफ़ी अलग हो सकता ह...